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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


वेश्या मुंशी प्रेम चंद

 पुरुष-समाज जितना अत्याचार चाहे कर ले। हम असहाय हैं, आत्माभिमान को भूल बैठी हैं लेकिन...
सहसा सिंगारसिंह ने उसके हाथ से वह पत्र छीन लिया और जेब में रखता हुआ बोला, क्या बड़े गौर से पढ़ रहे हो, कोई नयी बात नहीं। सबकुछ वही है, जो तुमने सिखाया है। यही करने तो तुम उसके यहाँ जाते थे। मैं कहता हूँ, तुम्हें मुझसे इतनी जलन क्यों हो गयी ? मैंने तो तुम्हारे साथ कोई बुराई न की थी। इस साल-भर में मैंने माधुरी पर दस हजार से कम न फूँके होंगे। घर में जो कुछ मूल्यवान् था, वह मैंने उसके चरणों पर चढ़ा दिया और आज उसे साहस हो रहा है कि वह हमारी कुल-देवियों की बराबरी करे ! यह सब तुम्हारा प्रसाद है। सत्तर चूहे खाके बिल्ली हज को चली ! कितनी बेवफा जात है। ऐसों को तो गोली मार दे। जिस पर सारा घर लुटा दिया, जिसके पीछे सारे शहर में बदनाम हुआ, वह आज मुझे उपदेश करने चली है ! जरूर इसमें कोई-न-कोई रहस्य है। कोई नया शिकार फँसा होगा; मगर मुझसे भागकर जायगी कहाँ, ढूँढ़ न निकालूँ तो नाम नहीं। कम्बख्त कैसी प्रेम-भरी बातें करती थी कि मुझ पर घड़ों नशा चढ़ जाता था। बस, कोई नया शिकार फँस गया। यह बात न हो, मूँछ मुड़ा लूँ।
दयाकृष्ण उसके सफाचट चेहरे की ओर देखकर मुस्कराया तुम्हारी मूँछें तो पहले ही मुड़ चुकी हैं।
इस हलके-से विनोद ने जैसे सिंगारसिंह के घाव पर मरहम रख दिया।
वह बे-सरो-सामान घर, वह फटा फर्श, वे टूटी-फूटी चीज़ें देखकर उसे दयाकृष्ण पर दया आ गयी। चोट की तिलमिलाहट में वह जवाब देने के लिए ईंट-पत्थर ढूँढ़ रहा था; पर अब चोट ठण्डी पड़ गयी थी और दर्द घनीभूत हो रहा था। दर्द के साथ-साथ सौहार्द भी जाग रहा था। जब आग ही ठंडी हो गयी तो धुआँ कहाँ से आता ?
उसने पूछा, सच कहना, तुमसे भी कभी प्रेम की बातें करती थी ?
दयाकृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा, मुझसे ? मैं तो खाली उसकी सूरत देखने जाता था।
'सूरत देखकर दिल पर काबू तो नहीं रहता।'
'यह तो अपनी-अपनी रुचि है।'
'है मोहनी, देखते ही कलेजे पर छुरी चल जाती है।'
'मेरे कलेजे पर तो कभी छुरी नहीं चली। यही इच्छा होती थी कि इसके पैरों पर गिर पङूँ।'
'इसी शायरी ने तो यह अनर्थ किया। तुम-जैसे बुद्धुओं को किसी देहातिन से शादी करके रहना चाहिए। चले थे वेश्या से प्रेम करने !'
एक क्षण के बाद उसने फिर कहा, मगर है बेवफा, मक्कार !
'तुमने उससे वफा की आशा की, मुझे तो यही अफसोस है।'
'तुमने वह दिल ही नहीं पाया, तुमसे क्या कहूँ।'
एक मिनट के बाद उसने सह्रदय-भाव से कहा, अपने पत्र में उसने बातें तो सच्ची लिखी हैं, चाहे कोई माने या न माने ? सौन्दर्य को बाजारू चीज समझना कुछ बहुत अच्छी बात तो नहीं है।

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